Sunday, November 13, 2016


 रिश्ते बनाते हो फिर उन्हें सीमाओं में बांधते हो ....तुम ऐसा क्यूँ करते हो ?

दिल का दिल से रिश्ता होता है ज़ज्बात का ...तुम क्यूँ उन्हें परिभाषाओ में बांधते हो ?

मुस्कराहट किसी की जब छूती है है मन को.उसे वहीँ तक रहने दो ....तुम क्यूँ उसे सोच के दायरों में ढालते हो ?

एहसासात का कोई जिस्म नहीं होता वो रूह में बसते हैं ....तुम क्यूँ उन्हें लफ़्ज़ों का जामा पहना रहे हो ?

दिल खुद ही बना लेता है हदें अपनी .....तुम क्यूँ उसपर आवरणों के कांटे बिछा रहे हो ?

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