Sunday, November 13, 2016


 रिश्ते बनाते हो फिर उन्हें सीमाओं में बांधते हो ....तुम ऐसा क्यूँ करते हो ?

दिल का दिल से रिश्ता होता है ज़ज्बात का ...तुम क्यूँ उन्हें परिभाषाओ में बांधते हो ?

मुस्कराहट किसी की जब छूती है है मन को.उसे वहीँ तक रहने दो ....तुम क्यूँ उसे सोच के दायरों में ढालते हो ?

एहसासात का कोई जिस्म नहीं होता वो रूह में बसते हैं ....तुम क्यूँ उन्हें लफ़्ज़ों का जामा पहना रहे हो ?

दिल खुद ही बना लेता है हदें अपनी .....तुम क्यूँ उसपर आवरणों के कांटे बिछा रहे हो ?
मेरे पास पंख नहीं है 
              मगर मुझे उड़ना है ,

मेरे पास नींद नहीं है 
              पर मेरे पास सपना है 

मेरे पास भीड़ नहीं है 
             लेकिन मेरे पास अपना है 

मेरे पैरों में अल्पना में नहीं है 
               किन्तु मेरे पास कल्पना है 

मेरे माथे पर जीत का ताज नहीं 
               न सही मेरे दिल में उमंगों की खान है 

मेरे पाँव किसी दौड़ का हिस्सा नहीं 
              क्या हुआ ? मेरे कदमो की खुद इक राह है 

मेरे वक़्त ने दी है मुझको कुछ मजबूरियां 
               अच्छा हुआ , हुई अपनों से पहचान है | 



बस बंद करो खुद को कटघरे में खड़ा करना ....बस भी करो अब !!!! 

न इल्ज़ामात तुम्हारे न जिरह तुम्हारी ...
तुम बस मूक सी खड़ी ,

ना  मुलजिम न मुजरिम तुम पर 
मिलती तुम्हें तारिख बड़ी |

वो क़त्ल कर आशियानों में जा बसे ,
                जंहा पहुंचते नहीं कानून के हाथ जो होते बड़े |


तुम जी रहीं  अपराधी सा जीवन ,
                जिनके रंगे हाथ खून से उनका हर क्षण आकर्षण |


तुम चाहती पूछती गुहार लगाती आर्तनाद करती ,
              न्याय कहाँ ? इंसानियत कहाँ ?ज़मीर कहाँ ?     

दुनिया कहती धीरज धरो ..वक़्त का इंतज़ार करो .....होता है ...

लहू जो रिश्ता हर पल ह्रदय में ...दीखता नहीं चेहरे पर 

मगर सावधान ! दिखाना नहीं एक भी आंसू ...

वरना फिर इलज़ाम लगेंगे ...............

इसलिए अब बस भी करो |   




आज  मैं जब तक बगीचे में  रही ....एक कोयल न जाने किसे पुकारती रही ,

बस निकलते वक्त येही दुआ की , कि  उसकी दुआ  क़ुबूल हो जाय ......

In Mirror Maze

इतने आईने थे .......

हर आईने में मेरी खिलखिलाहट मौजूद थी

मेरी आँखों की चमक बरक़रार थी

मेरे  माथे की बिंदिया चमचमा रही थी

मेरे क़दम आगे का रास्ता ढूँढने को बेक़रार थे

मेरी धड़कन की गुनगुनाहट गूँज रही थी

मेरे ख्वाब अपने मुस्तकबिल तक पहुँचने को तैयार  थे

मैं जल्दी से आइनों के जाल से निकल आई

और खुद से एक और मुलाकात कर आई |



हर सम्बन्ध हो सीमा में
 हर उम्मीद हो दायरे में
अपेक्षा हो सीमित
भाव में हो भावना
घात का हो आभास
विश्वास का हो साथ
आस्था से हो नाता
रिश्तों पर हो यकीं
जोश में सब्र हो
ख़ुशी में बेसब्र न हों
दिल में हो प्यार
दिमाग में हो ठहराव

हो सब में ये एहसास तो न हो कोई भार
बस हो रिश्तों में प्यार ...बेपनाह प्यार |

Saturday, November 12, 2016


ज़िन्दगी को क्यूँ बना दिया है तराजू , पल पल रिश्तों को तोलते हो ,

हर पलड़े के बढ़ते घटते भार का बोझ खुद ही ढोहते हो ,

कोई अच्छा है तो क्यों है ? कोई बुरा है तो क्यों है ?

रिश्तों के मायने ये तो नहीं ........रिश्तों की परिभाषा ये तो नहीं !!!!!!!!!!!




गर इम्तेहां के बाद मंजिल है तो बेहतर है ,

हर इम्तेहां में मिले ललकार तो बेहतर है ,

ललकार सुन, हो यलगार तो बेहतर है ,

यलगार की पुकार में हो जीत की हुंकार , तो बेहतर है,

जीत से पहले हो संघर्ष से पहचान तो बेहतर है ......तो ही हो जीत तो बेहतर है |






दोस्त कभी इस तरफ भी आया करो ,

दरिया है बीच में समंदर तो नहीं ................
चलो अब वक़्त का क़र्ज़ भी उतार दूं ....

दिया है जख्म इसने मुझे ..................

मैं भी , इक नज़्म लिख कर इसके सीने में उतार दूं ............
मेरा वजूद , किसी तालाब के पानी सा बंध गया था ,

अच्छा हुआ वक़्त ने उसमें कंकड़ फैंक कर एहसास तो करवा दिया की ,

" तुझ में भी कभी गति तो थी "|
ये ख्वाब टूटने की आवाज़ क्यूँ नहीं होती ?

और मैं कमबख्त,  नींद के हाथों में ख्वाब देना नहीं भूलती ..................
ए दर्द अब मान भी जा , तेरा मेरा साथ हो चला है पुराना अब ,

तू रक़ीब बन के आया था ......दोस्त बन चूका है अब ,

आ के तेरा दर्द मैं बाँट लूं मेरी ख़ुशी में तू मुस्कुरा ले ,

दोस्त मान ले मेरा कहा ......मुझसी वफ़ा न मिलेगी तुझे ,

ए दर्द अब मान भी जा ...............या

तू भी दोस्ती की कहानी दोहराएगा .........अपना बनाने पर दगा दे जायेगा ...........

मैं कब तक तुझे दूर से देखती रहूंगी


समंदर ...... मैं कब तक तुझे दूर से देखती रहूंगी

                   तू तो जब चाहे मेरी आँखों से होकर गुज़र जाता है

कभी तो अपने करीब बुला ....... वहीँ  ठहर

अपने पांवो के निशां देखने दे
लहरें क्या गाती है सुनने दे
चट्टानों की ओट में जा जा के क्या बतियाती हैं
शाम को सर गोद में रख कर तपस्वी सूर्य का.....कैसे थपथपाती है ,


समंदर ...... मैं कब तक तुझे दूर से देखती रहूंगी

तू जब चाहे निकल पड़ता है नयी दिशाओ में। ....... ज़रा रुक

मुझको भी साथ ले चल

भर लूं हाथों में लहरों का शोर
समेट लूं तेरी गहरायी अपने मन में
बसा लूं तेरा विस्तार अपने सपनों में।

समंदर ...... मैं कब तक तुझे दूर से देखती रहूंगी 

भीगता है कौन


खिड़की से ज़रा झाँक कर देखना

सांझ ढले पेड़ के नीचे बर्फ की चादर ओढ़े भीगता है कौन,

वो गीत है किसी का
ग़ज़ल है किसी की
कलाम है किसका

बुला लेना अंदर
बैठा लेना पास
एहसास की गर्मी देना

गुनगुना उठेगा गीत
महक उठेगी ग़ज़ल
गूँज जाएगा  कलाम  ।

खिड़की से ज़रा झाँक कर देखना

सांझ ढले पेड़ के नीचे बर्फ की चादर ओढ़े भीगता है कौन,

ए समंदर तू किस गुरुर में शोर मचाता है


ए समंदर तू किस गुरुर में शोर मचाता है

तुझसे कई मेरी पलकों की दहलीज़ पर खामोश बहते हैं ,

एक और किस्मत की करामात देख मेरे समंदर के साहिल रेगिस्तान हैं. ........ 

आखिर वो मेरा क्या लगता है |

आखिर वो मेरा क्या लगता है ,



वो शख्स कितना अपना सा लगता है , आखिर वो मेरा क्या लगता है ,

न जाने कैसे मेरी आँखें पढ़ लेता है , हद ये है आँखों से कह भी देता है ।

वो शख्स कितना अपना सा लगता है , आखिर वो मेरा क्या लगता है ,

मेरी मुस्कराहट उसकी ख़ुशी बन जाती है और उसकी हंसी मेरा गहना ।

वो शख्स कितना अपना सा लगता है , आखिर वो मेरा क्या लगता है ,

जब भी वो मुक़ाबिल होता है साया भी मेरा महफूज़ होता है ।

वो शख्स कितना अपना सा लगता है , आखिर वो मेरा क्या लगता है ,

धुप से बचने को जब दुपटे से चेहरा ढकती  हूँ , आगे का सफर उसकी आँखों से तय करती हूँ ।

वो शख्स कितना अपना सा लगता है , आखिर वो मेरा क्या लगता है ।