Wednesday, December 5, 2012

रिश्ते सिर्फ ज़ज्बाती नहीं हो सकते क्या अब ?

विश्वास की नीव   इतनी कमज़ोर क्यों होने लगी है ? रिश्ते सिर्फ ज़ज्बाती नहीं हो सकते क्या अब ? हर रिश्ते के पीछे कोई न कोई रीज़न होना ज़रूरी है ? रिश्तों की बुनियाद  ये तो नहीं ! अपनों की परिभाषा ये तो नहीं हो सकती ! 

कैसे बचपन के रिश्ते होते हैं ...पाक सहज सरल ...जब जो जी चाहा कह दिया , कर लिया . किसी भी लफ्ज़ को कहने  से पहले तौलते  नहीं सोचते नहीं ......नए दोस्त बनाने से पहले उसके बारे में जाना नहीं चाहते की वो क्या करता है , उसका समाज में क्या स्थान है ? क्या वो उनके किसी काम आएगा ? क्या उससे दोस्ती करके उन्हें कोई फ़ायदा होगा ...... दोस्त सिर्फ दोस्त होता है ...अपना सिर्फ अपना ....जिससे आप खुद को बाँट सको । 

आज के दौर की समस्या ये हो गयी है की अगर आप ने सिर्फ रिश्ता ज़ज्बाती तौर पर बनाया है , आप की भावनाए बेशक एक दोस्त की रहे लेकिन ज़रूरी नहीं आप जिसे दोस्त मान रहे हैं वो आपको उस परिभाषा वाला दोस्त या अपना मान रहा है या नहीं . सामने अपनापन पा  कर आप इस मुगालते में रहते हैं की आपको एक अच्छा दोस्त मिला लेकिन आपके पलटते ही शायद उनका रिश्ता तब तक रहेगा जब तक आप उनके लिए एक बेटर डील साबित होते हैं या नहीं . बस ऐसे में दोस्ती के रिश्ते से विश्वास न उठने दें , आप जो हैं आपके जो ज़ज्बात हैं , र्रिश्ते की अहमियत जो आपके लिए है उससे टूटने न दें .....अक्सर ऐसी स्थिति या अनुभव हमारे विश्वास को झकझोरते हैं ....और हम हर नए मिलने वाले शख्स के प्रति अपनी स्वाभाविक भावनाओ को प्रदर्शित करने से डरते हैं . उनकी नजरो में हमें वही नाप तौल नज़र आने लगता है । वैसे महानगरो में लोग इस मुताल्क काफी साफगोई पसंद हो गए हैं उन्हें अगर आपसे काम नहीं तो वो उसे साफ़ ज़ाहिर कर देंगे और अपनी दूरी बनाये रखेंगे ,,,,लेकिन अगर आपसे काम हुआ तो लिल्लाह !!! आपसे ज्यादा उनका करीबी कोई नहीं बस आप अपना ख्याल रखें सेंटी न हो जायें वरना बाद में दोस्ती के रिश्ते पर प्रशचिन्ह्न उठाते रह जाएंगे ।

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