Monday, September 19, 2011

मैंने इक गीत लिखा है

मैंने इक गीत लिखा है किसको सुनाऊं ?


शब्दों में पिरोये हैं दिल के हालात ..कैसे दिखाऊँ ?


सुबह को निकली इक किरण जल्दी में थी , न जाने उसे कहाँ जाना था !


दोपहर को अपने साए से कहने लगी , वो बड़ा गुमसुम सा था , मैं भी खामोश रह गयी !


आसमान का रंग बदलने लगा था उसकी ओर देखा , वो शाम के इंतज़ार में था , मेरी आँखों में भी इंतज़ार उतर आया !


बस अब रात का खवाब बचा था , वो दबे पाँव आया ..बहुत नाज़ुक था ..कैसे कहती , उसके साथ फिर सुबह का इंतज़ार करने लगी


मैंने इक गीत लिखा है किसको सुनाऊं ?


शब्दों में पिरोये हैं दिल के हालात ..कैसे दिखाऊँ ?

3 comments:

  1. शब्द नहीं भाव कविता गढ़ते है,
    ना साज ना आवाज विराम गीत गुनते है|

    गीत को श्रोता की नहीं गुनगुनाने की दरकार
    जब होने में ही जीवन है तो फिर कैसा इंतज़ार ||

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  2. जी सही कहा आपने ......गीत को गुनगुनाना ही तो ज़रूरी है , सुनने को अपना साथ ही काफी है , है ना ?

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  3. जी, अपना ही साथ काफ़ी है|
    और अपनों का भी मिल जाये तो क्या बात है!

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