मैंने इक गीत लिखा है किसको सुनाऊं ?
शब्दों में पिरोये हैं दिल के हालात ..कैसे दिखाऊँ ?
सुबह को निकली इक किरण जल्दी में थी , न जाने उसे कहाँ जाना था !
दोपहर को अपने साए से कहने लगी , वो बड़ा गुमसुम सा था , मैं भी खामोश रह गयी !
आसमान का रंग बदलने लगा था उसकी ओर देखा , वो शाम के इंतज़ार में था , मेरी आँखों में भी इंतज़ार उतर आया !
बस अब रात का खवाब बचा था , वो दबे पाँव आया ..बहुत नाज़ुक था ..कैसे कहती , उसके साथ फिर सुबह का इंतज़ार करने लगी
मैंने इक गीत लिखा है किसको सुनाऊं ?
शब्दों में पिरोये हैं दिल के हालात ..कैसे दिखाऊँ ?
शब्द नहीं भाव कविता गढ़ते है,
ReplyDeleteना साज ना आवाज विराम गीत गुनते है|
गीत को श्रोता की नहीं गुनगुनाने की दरकार
जब होने में ही जीवन है तो फिर कैसा इंतज़ार ||
जी सही कहा आपने ......गीत को गुनगुनाना ही तो ज़रूरी है , सुनने को अपना साथ ही काफी है , है ना ?
ReplyDeleteजी, अपना ही साथ काफ़ी है|
ReplyDeleteऔर अपनों का भी मिल जाये तो क्या बात है!