Tuesday, September 27, 2011

क्या करूँ ?

न करूँ ज़िक्र ज़िन्दगी की हकीक़तो का तो क्या करूँ ?


शब्द ही तो हैं मेरे साहिल उन तक भी न पहंचु तो क्या करूँ ?


वक़्त से होती हूँ रूबरू रोज़, होंसलों के साथ क्या करूँ ?


मिलता है रोज़ वही नए इम्तिहानो के साथ क्या करूँ ?


लेती हूँ आड़े हाथो खुदा को भी क्या करूँ ?


हाथों की लकीरों को भी देती हूँ चुनौती रोज़ क्या करूँ ?


करने दो मुझको ज़िक्र हर एहसास का , करनी है ढेरो बातें , क्या करूँ ?


देती हूँ मुस्कुरा मैं हर बात पर ............................मैं क्या करूँ ?? --

1 comment:

  1. करने में सोचना क्या?
    और किसी की अनुमति भी क्यों?
    अपने अंतर को खोलने किसी और की सहमती भी क्यों?
    तुलसी ने राम को अपने मानस में रचा - स्वान्तः सुखाय! आज घर घर का मानस का मंथन कर रहा है|
    अपने को न रोको न करो इंतज़ार...
    अपने होने का अनुपम करो आविष्कार!!

    हर क्षण का होता अपना ही रंग, रूप और राग
    प्रतीक्षा में खो ना जाये अवसर, स्नेह अनुराग||

    ReplyDelete